भारतीय संस्कृति में तुलसी को उसके दिव्य गुणों के कारण साक्षात् देवी माना गया है, क्योंकि तुलसी के पूजन एवं सेवन से तन-मन की शुद्धि होती है। शारीरिक रोगों के साथ-साथ मानसिक विकारों का भी नाश होता है। हिन्दू धर्मग्रन्थों में तुलसी की महिमा का विस्तृत वर्णन मिलता है।
पुराणों में लिखा है-तुलसी के पेड़ का प्रत्येक अंग पावन है। तुलसी-वृक्ष में मूल से लेकर उसकी छाया तक में समस्त देवता तथा सभी तीर्थ निवास करते हैं। जल में तुलसीदल मिलाकर जो व्यक्ति स्नान करता है, उसे सब तीर्थो में स्नान का पुण्यफल प्राप्त होता है। भगवान विष्णु को अमृत से भरे सहस्त्रों घड़ों से उतनी संतुष्टि नहीं होती, जितनी तुलसीदल पड़े हुए जल से। तुलसी-वृक्ष के समीप किया जप-तप-धार्मिक अनुष्ठान श्रीहरि को शीघ्र प्रसन्न करके मनोवांछित फल देता है। असमर्थ व्यक्ति तुलसीपत्र के दान से गो-दान का फल प्राप्त कर लेता है। तुलसीदल से शालिग्राम जी की अर्चना करने पर अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। मृत्यु के समय जिसके मुंह में तुलसीपत्र दे दिया जाता है, वह व्यक्ति समस्त पापों से मुक्त होकर बैकुण्ठ में प्रवेश की पात्रता प्राप्त कर लेता है।
यदि दाह-संस्कार के समय अन्य लकडि़यों की भीतर एक भी तुलसी का काष्ठ हो, तो करोड़ों पापों से ग्रसित होने पर भी मनुष्य की मुक्ति हो जाती है। तुलसी-वृक्ष के नीचे की मिट्टी का तिलक मस्तक पर लगाने से महापातक एवं दुर्भाग्य नष्ट हो जाता है। श्राद्ध के भोज्य पदार्थो तथा कव्य आदि में तुलसी के प्रयोग से पितरों को अक्षय तृप्ति प्राप्त होती है। वैष्णव तुलसी की माला को अपने गले में बाँधते हैं, किन्तु यह ध्यान रखें कि कण्ठी धारण करने वाले को उसके नियमों का सदा पालन करना चाहिए। इसमें कभी भी शिथिलता आने न दें। तुलसी की माला को सदैव पवित्र स्थान में ही रखना चाहिए। तुलसीपत्र हर समय नहीं तोड़े जा सकते। ब्रह्मवैवर्तपुराण में स्वयं भगवान का यह कथन है-
पूर्णिमा, अमावस्या, द्वादशी, सूर्य की संक्रान्ति के दिन, मध्याह्नकाल, रात्रि और दोनों संध्याओं में, अशौच के समय, बिना नहाए-धोए अथवा रात के वस्त्र पहने हुए या शरीर में तेल लगाकर जो लोग तुलसीपत्र तोड़ते हैं, वे मानों भगवान विष्णु के सिर को छेदते हैं। कार्तिक-पूर्णिमा तुलसी की जन्मतिथि है। देवोत्थान एकादशी के दिन श्रीहरि के योग-निद्रा से जाग जाने पर द्वादशी को तुलसी का शालिग्राम से विवाह संपन्न कराया जाता है। तुलसी-विवाह की यह प्राचीन परंपरा आज तक प्रचलित है जो अब एक धार्मिक महोत्सव का रूप ले चुकी है। वैष्णवों का यह विश्वास है कि तुलसी-शालिग्राम का विवाह कराने से कन्या के विवाह में आ रही विघ्न-बाधाएं दूर होती हैं तथा दाम्पत्य-सुख के प्रतिबन्धक दुर्योग नष्ट हो जाते हैं। बृहद्धर्मपुराण में तुलसी के षडक्षर मंत्र-ॐ तुलस्यै नम: से इनके पूजन का विधान बताया गया है। इस मंत्र का तुलसी की माला पर कम से कम 108 बार जाप अवश्य करें। अंत में तुलसी-नामाष्टक का पाठ करना चाहिए-
वृंदा वृंदावनी विश्वपूजिता विश्वपावनी।
पुष्पसारा नन्दिनी च तुलसी कृष्णजीवनी॥
भक्तिपूर्वक तुलसी देवी की पूजा करने वाला निष्पाप होकर श्रीहरि की सामीप्यता प्राप्त कर लेता है।
पुराणों में लिखा है-तुलसी के पेड़ का प्रत्येक अंग पावन है। तुलसी-वृक्ष में मूल से लेकर उसकी छाया तक में समस्त देवता तथा सभी तीर्थ निवास करते हैं। जल में तुलसीदल मिलाकर जो व्यक्ति स्नान करता है, उसे सब तीर्थो में स्नान का पुण्यफल प्राप्त होता है। भगवान विष्णु को अमृत से भरे सहस्त्रों घड़ों से उतनी संतुष्टि नहीं होती, जितनी तुलसीदल पड़े हुए जल से। तुलसी-वृक्ष के समीप किया जप-तप-धार्मिक अनुष्ठान श्रीहरि को शीघ्र प्रसन्न करके मनोवांछित फल देता है। असमर्थ व्यक्ति तुलसीपत्र के दान से गो-दान का फल प्राप्त कर लेता है। तुलसीदल से शालिग्राम जी की अर्चना करने पर अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। मृत्यु के समय जिसके मुंह में तुलसीपत्र दे दिया जाता है, वह व्यक्ति समस्त पापों से मुक्त होकर बैकुण्ठ में प्रवेश की पात्रता प्राप्त कर लेता है।
यदि दाह-संस्कार के समय अन्य लकडि़यों की भीतर एक भी तुलसी का काष्ठ हो, तो करोड़ों पापों से ग्रसित होने पर भी मनुष्य की मुक्ति हो जाती है। तुलसी-वृक्ष के नीचे की मिट्टी का तिलक मस्तक पर लगाने से महापातक एवं दुर्भाग्य नष्ट हो जाता है। श्राद्ध के भोज्य पदार्थो तथा कव्य आदि में तुलसी के प्रयोग से पितरों को अक्षय तृप्ति प्राप्त होती है। वैष्णव तुलसी की माला को अपने गले में बाँधते हैं, किन्तु यह ध्यान रखें कि कण्ठी धारण करने वाले को उसके नियमों का सदा पालन करना चाहिए। इसमें कभी भी शिथिलता आने न दें। तुलसी की माला को सदैव पवित्र स्थान में ही रखना चाहिए। तुलसीपत्र हर समय नहीं तोड़े जा सकते। ब्रह्मवैवर्तपुराण में स्वयं भगवान का यह कथन है-
पूर्णिमा, अमावस्या, द्वादशी, सूर्य की संक्रान्ति के दिन, मध्याह्नकाल, रात्रि और दोनों संध्याओं में, अशौच के समय, बिना नहाए-धोए अथवा रात के वस्त्र पहने हुए या शरीर में तेल लगाकर जो लोग तुलसीपत्र तोड़ते हैं, वे मानों भगवान विष्णु के सिर को छेदते हैं। कार्तिक-पूर्णिमा तुलसी की जन्मतिथि है। देवोत्थान एकादशी के दिन श्रीहरि के योग-निद्रा से जाग जाने पर द्वादशी को तुलसी का शालिग्राम से विवाह संपन्न कराया जाता है। तुलसी-विवाह की यह प्राचीन परंपरा आज तक प्रचलित है जो अब एक धार्मिक महोत्सव का रूप ले चुकी है। वैष्णवों का यह विश्वास है कि तुलसी-शालिग्राम का विवाह कराने से कन्या के विवाह में आ रही विघ्न-बाधाएं दूर होती हैं तथा दाम्पत्य-सुख के प्रतिबन्धक दुर्योग नष्ट हो जाते हैं। बृहद्धर्मपुराण में तुलसी के षडक्षर मंत्र-ॐ तुलस्यै नम: से इनके पूजन का विधान बताया गया है। इस मंत्र का तुलसी की माला पर कम से कम 108 बार जाप अवश्य करें। अंत में तुलसी-नामाष्टक का पाठ करना चाहिए-
वृंदा वृंदावनी विश्वपूजिता विश्वपावनी।
पुष्पसारा नन्दिनी च तुलसी कृष्णजीवनी॥
भक्तिपूर्वक तुलसी देवी की पूजा करने वाला निष्पाप होकर श्रीहरि की सामीप्यता प्राप्त कर लेता है।
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